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Hymn No. 30 | Date: 21-Aug-1996
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गुरू ज्ञान गंगा हो तुम, मैं प्यासा रेत का कण ।
गुरू ज्ञान गंगा हो तुम, मैं प्यासा रेत का कण ।
इस अंजान मरू (धरा) भूमि पे, मेरी आस ही तुम हो ।
प्यासा तो सदियों से हूँ, जग के इस छोर से उस छोर तक ।
वक्त के थपेड़ों के संग भटका हूँ, अब जब आस तूने जगाई ।
प्यास तुझको ही बुझानी होगी, अपने करीब बुलाना होगा ।
इंतजार में बीती सदियाँ, भरा ना है दिल मेरा तुझसे ।
ये अभागा सदा तरसा है तेरे लिये, संजोई है सदा से तस्वीर तेरी ।
करम बैरी बनते रहे फिर भी मैं तुझसे प्यार करता हूँ ।


- डॉ.संतोष सिंह