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Hymn No. 2872 | Date: 03-Nov-2004
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उड़के चला जाना चाहता हूँ, कल्पनाओं के पास,
उड़के चला जाना चाहता हूँ, कल्पनाओं के पास,
बसते हो तुम वहाँ पे, न जाने किन किन स्वरूपों मैं।
पुकारे जब कोई अंतर से तुम्हें, प्रेम में उन्मत होके,
तब जाके अवतरित होते ही, उस एक के कारण से न जाने कितनों की प्यास बुझाते हो।
बात एकाकी की है, पर शब्द उसके साक्षी हैं,
अंतरमन की तड़प को मिटाते हो, माया का एक पहले से पर्दा उठाते हो।
सोच समझ से परे न जाने कितनो को क्या कुछ दे जाते हो,
हाँ कुछ दिवानें परवानों को मस्ती का पाठ मैं सिखाते हो प्रेम प्रेम।
दुर्लभ मानव जीवन में आते हो हर युग मैं प्रेम का खेल दिखाते हो,
अपने हो या पराये किसीको आज तो किसीको बाद मैं अपने साथ ले जाते हो।


- डॉ.संतोष सिंह