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Hymn No. 2871 | Date: 03-Nov-2004
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मेरे हृद्य द्वार पे, तुम दस्तक देते हो बार - बार,
मेरे हृद्य द्वार पे, तुम दस्तक देते हो बार - बार,
फिर क्यों बैठा हूँ, में आँखे मूंदकर उदास।
तुम आते हो जाते हो, यादों के झरोखों से,
मैं क्यों नहीं कह पाता हूँ खुलके, बस जाओ तुम अंतर में मेरे।
खेल ये कैसा है, प्रेम में एक व्यथित उदास है,
तो दूजा आनंद मैं निमग्न, अपने आप मैं मगन है।
तुम तो हो वेदों के साक्षात सार, प्रेम के द्वार,
कब करोगे मेरे अनदेखे सपनो को साकार।
माना तुम्हारे चाहने वालों की एक लंबी कतार है,
पर जहा तक में जानू उससे भी ज्यादा तुम उदार हो।


- डॉ.संतोष सिंह