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Hymn No. 2864 | Date: 29-Oct-2004
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यादों के झरोखों से, मुलाकातों को देखता हूँ।
यादों के झरोखों से, मुलाकातों को देखता हूँ।
पतझड़ के मौसम मैं, बंसत की बयारों को संजोता हूँ।
बीते हुये वख्त से निकलके, चुपचाप भविष्य की ओर बढ़ता हूँ।
लड़ता हूँ अपने आप से, जो पाया है खुदसे।
बेमानी जीवन मैं उम्मींद की किरणो को संजोता हूँ।
कहे हुये किस्सों को, पकड़के जीवन को जीता हूँ।
रीता रहा प्रेम से, कुछ ओर अब ना सुहाये मुझको।
कुछ ओर कुछ ओर की तलाश में तेरी ओर बढ़ता हूँ।
समय निकलता जाये हाथों से, फिर भी हारने को तैयार नही ।
तेरा दामन कसके पकड़ा हूँ, प्रेम के सिवाय अब होगा ना कुछ।


- डॉ.संतोष सिंह