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Hymn No. 2360 | Date: 18-Jun-2001
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गुनगुनाते हुये बोल को बदल नही पा रहा हूँ गीतों में।
गुनगुनाते हुये बोल को बदल नही पा रहा हूँ गीतों में।
समर्थ की छत्रछाया में रहते हुये, असमर्थता से भरा जीवन जिये जा रहा हूँ।
संपूर्णता के पास रहके, अपूर्णताओं से भरा जीवन जीये जा रहा हूँ।
जो है पास में उसे नजरअंदाज करके, दूरके खयाली पूलाव पकाये जा रहा हूँ।
बिगड़ी बनाने वाले के राह में न जाने कब से रोड़े डाले जा रहा हूँ।
जाग्रत के पास आके, अजाग्रत से भरी जिंदगी जिये जा रहा हूं।
प्रेम रस का पान करते हुये, मन की विवशताओं में फंसते जा रहा हूँ।
करने वालों का हाल देखके, उन्हीं कर्मों को दोहराये जा रहा हूँ।
प्रभु के साथ रहते हुये, माया की बातें बार बार किये जा रहा हूँ।
असाधारण पिता के साथ रहते, साधारण कार्य किये जा रहा हूँ।


- डॉ.संतोष सिंह