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Hymn No. 2344 | Date: 06-Jun-2001
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ओ मेरे प्रभुजी, ओ मेरे प्रभुजी, विचरना चाहता हूँ पंक्षी बनके तेरे अंनत गगन में।
ओ मेरे प्रभुजी, ओ मेरे प्रभुजी, विचरना चाहता हूँ पंक्षी बनके तेरे अंनत गगन में।
बहना चाहता हूँ वसुंधरा बनके तेरी धरा पे, ओ...।
लांघ जाना चाहता हूँ समीर बनके सारे जगत की सरहदों को, ओ...।
धड़कना चाहता हूँ हर दिल में प्यार बनके, ओ...।
मुखरित होना चाहता हूँ हर कंठ से गीत बनकें, ओ...।
बयाँ करना चाहता हूँ हाल सत्य पूर्ण ज्ञान का, ओ...।
चमकते रहना चाहता हूँ सितारा बनके अनंत अंतरिक्ष में, ओ...।
रोशन होना चाहता हूँ सूर्य भांति सारे ब्रम्हाण्ड में, ओ...।
गुंजायेमान होना चाहता हूँ अनहद नाद बनके अनंत में उसे...।
जीना चाहता हूँ हर कालों में अकाल बनके, ओ...।
तोड़ देना चाहता हूँ हर सीमां को असीम बनके ओं...।
मौंन हो जाना चाहता हूँ परम में तूझमे विलीन होकें ओं...।


- डॉ.संतोष सिंह