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Hymn No. 2339 | Date: 04-Jun-2001
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तुझे क्याँ कहूं जो कहना चाहूँ तो कह नहीं पाऊँ।
तुझे क्याँ कहूं जो कहना चाहूँ तो कह नहीं पाऊँ।
जितना समझना चाहूं, तो उतना भी समझ नही पाऊँ।
कभी लगता है तू दीवानगी की है दीवानगी।
तो कभी लगता है तू परवानों की शमा है।
उसी समय, ख्याल आता है कही तू इनसे परे तो नहीं।
तुझमें होती है मस्ती इतनी सब भूल, कर समझ बैठता हूँ तुझे मस्ताना।
जितना समझ नहीं पाता, उतना ही समझना हूँ चाहता।
जब पूछता हूँ तुझसे, तू हंसके टाल देता है मुझको।
क्या इसमें भी है मेरा बचकानापन जो प्रेम में करे सवाल।
मिटा दे मेरे सवालो को, विभोर करके प्यार में तेरे।


- डॉ.संतोष सिंह