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Hymn No. 2203 | Date: 06-Mar-2001
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तुम्हारी नजरों में मैं हिंदू हूँ या मुसलमा, मैं तो अपने परम् पिता का बेटा हूँ।
तुम्हारी नजरों में मैं हिंदू हूँ या मुसलमा, मैं तो अपने परम् पिता का बेटा हूँ।
निरख न पाते हो प्यार से तुम उसको, तो कह देते हो अबूझ है वो।
प्यार करना जिनको आया, उसके लिये कोई न मतलब हैं बूझ अबूझ का।
तुम्हारी नजरों में मैं हिंदू हूँ या मुसलमां, मैं तो अपने परम् पिता का बेटा हूँ।
रस्म अदायगी से कोई न मेरा वास्ता, हर परंपरा को देखता हूँ श्रध्दा से।
जब उसको न कोई मलाल कौन करे पूजा कैसे, वो तो करता है स्वागत अपनी पहचान देके।
तुम्हारी नजरों में मैं हिंदू हूँ या मुसलमां, मैं तो अपने परम् पिता का बेटा हूँ।
कभी न कहा तू ये कर या वो मत कर, जिसमें दिल होता है खुश जी तू वो जिंदगी।
तेरे मन में आये तू वैसी कर बंदगी, इतना तंगदिल न होना जाना पड़े मेरा दर्शन के लिये कड़ा।
तुम्हारी नजरों में मैं हिंदू हूँ या मुसलमां, मैं तो अपने परम् पिता का बेटा हूँ।
मुझे लगता न है पलभर सर उठाऊँ तो उसको पाऊँ, सर झूकाऊँ तो उसका हो जाऊँ।
फाकामस्ती में भी आता है मजा, ओ। इक् दूजे को काफिर कहनेवालो तूम क्या पाना होता है कौन खुदा।
वो तो मालिक है बंदो का फिर भी करता है सेवा, मौज है उसके अंदर जिसमें पाते है सुकूँ सच्चे बंदे।
तुम्हारी नजरों में मैं हिंदू हूँ या मुसलमां, मैं तो अपने परम् पिता का बेटा हूँ।


- डॉ.संतोष सिंह