VIEW HYMN

Hymn No. 1941 | Date: 18-Aug-2000
Text Size
चल पड़ा हूँ अजीबों गरीब पर सच्ची अनंत यात्रा की ओर।
चल पड़ा हूँ अजीबों गरीब पर सच्ची अनंत यात्रा की ओर।
हाथ पकड़ा हौ परम् ने, कहीं भटक न जाये मन डगर के मध्य से।
दिल तो रहता है मस्ती में, यात्रा की दुर्गमताओं को भूले हुये।
इर्दगिर्द नाचता हूँ प्रिय के, अनिश्चिताओं से परे होके लीन उसमें।
यात्रा की गंभीरताओं को समझ नहीं पा रहा हूँ अपनी नासमझी में।
सवाल दर सवाल कर रहा हूँ खड़ा, पर हर कदम बढ़ा रहा हूँ परम् के साथ।
कटाक्ष हो रही है शैली पे, पर हर शब्द में अहसास रहता है प्यार का।
चुना है प्रभु ने जग के सबसे बड़े नामाकूल को काबिल बनाने के लिये।


- डॉ.संतोष सिंह