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Hymn No. 1888 | Date: 25-Jul-2000
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चलती रहती है सोच मन में, यहीं तो सबसे बड़ा दोष है मेरा।
चलती रहती है सोच मन में, यहीं तो सबसे बड़ा दोष है मेरा।
कर्ता है वो भोक्ता भी है वो, तो परवाह किसकी करता हूँ मैं।
मिटने वाले की चिंता में रात – दिन सर धुनता हूँ, अपने अमिट स्वरूप को भुलाके।
बैरी बना बैठा हूँ अपने आप का, इलजाम लगाता हूँ सताने का औंरों पे।
त्रिशंकू की तरह जी रहा हूँ जीवन, रहके परम् पिता के पास।
आया था घरा पे दास बनाने हर ईच्छा – इंद्रियों को, भटककें अटक गया इनके जाल में।
कुछ और देके भेजा था, दुनिया के दूरूह पूर्ण दौर से निकलने के लिये।
किया न हमने उसके कहे पे गौर, प्रारब्ध के जोर से माया के जाल में फंस गया
पर छूटनें ना देता हूँ, हम भी है समर्थ पिता के सामर्थ्यवान पुत्र।
इस बार को जो जागा हूँ, जगाऊँगा अपने प्यार से खुद के भीतर के खुदा को।


- डॉ.संतोष सिंह