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Hymn No. 16 | Date: 10-Jul-1996
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इस सृष्टि में माया की वृष्टि है।
इस सृष्टि में माया की वृष्टि है।
इच्छाओं और अभिलाषाओं की जननी है ।
सुप्त कामनायें देती है चिंगारी, भोग भोगते है देंहघायी
बँट चुके है; काल और सीमाओं में
माया की छाया को (देह) पुनःपुनःपाने को बेताब रहते है ।
आशा और निराशा, जर्रजर्र, क्षीण काया ।
कामनाओं के चलते, घसीटने को बेताब रहते है ।


- डॉ.संतोष सिंह