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Hymn No. 41 | Date: 14-Oct-1996
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ऐसे – वैसे न जाने कैसे – कैसे, दुनिया में हम जैसे लोग आते है चले।
ऐसे – वैसे न जाने कैसे – कैसे, दुनिया में हम जैसे लोग आते है चले।
खुद का रोना, रो – रोकर के, दुनिया को देते है हँसा ।
अपने कुकर्मों के लिए देते है दोष कीस्मत को।
तन के स्वार्थों के चलते, लेते है मुँह मोड सच्चाइयोंसे ।
सागर में तैरकर, इस तन में रहकर मर जाते है प्यासे अपनी इच्छाओं के चले
संजोया हुआ माटी का धड़ा जाता है फूट, माटी से बना है, जाता है मिल माटी में ।
तेरी चाहत ही हम सबकी है चाहत, बनना और मिटाना है तेरे ही हाथों में ।
हम हमारा हर एक सपना, सौंप देना चाहते हाथों में तेरे, तेरी मर्जी को अपनाना चाहते है।


- डॉ.संतोष सिंह