Hymn No. 27 | Date: 20-Aug-1996
एक कुकर्मी, चला प्रभो का गीत लिखने, लिखे तो क्या लिखे, पड़ गया सोच में वह, देखा प्रभो के भक्तों को, कोई गीत गा रहा था, कोई गुनगुना रहा था । कोई प्रभु के चरणों में बैठ नाम निरंतर लिये जा रहा था । पड़ गया सोच में वह, पीछे देखा तो, उसे अपने कुकर्मी के अलावा कुछ ना दिखा आगे देखा तो अपने आप को उनसे मैला पाया । ऐसा लगा उसे, कोई दूध में मक्खी जा गिरी मन मुरझाया, अपने आपको सबसे गया गुजरा पाया हाथ काँपे, पैर थरथराया, कंठ से बोले, बोल ना फूटा नेत्र के आगे अंधकार छाया, भाग चला वह इन सबसे दूर घसीटते हुये, क्षीण काया को ले, यहाँ – वहाँ, जहाँ – तहाँ हर कहीं भागा, पर अपने आप को लोगों के बीच पाया । बीच तो बीच, पर सबसे अलग – थलग पाया जैसे मखमल से जुड़ा पैबंद भागा फिर से, नदी लाघा – पहाड़ लांद्या, आ गया जंगल के बीच रूक कर – थोड़ा सा सुस्ताया । भटके हुये मन का ध्यान जब फिर से तन पेआया, अपने आप को उस जंगल में, भाँति – भाँति के जानवरों के बीच भी गया गुजरा पाया, खोट ही खोट उस अपने अंदर नजर आया अपनी बेबसी पर, वह रो पड़ा, रोया तो ऐसा रोया, नेत्र नदी बन बैठा, तन जा डूबा, मन का साथ छूटा, निष्प्राण काया धरा पर छूटा...... अचानक धरा के उस भाग से, एक श्वेत साया! नील – श्रोत गगन में उड़ा उड़ता ही चला गया ......
- डॉ.संतोष सिंह
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