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Hymn No. 2366 | Date: 22-Jun-2001
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दर्शन को तरसता है मन मोरा, आघात नहीं चाहे कर लूँ कितना भी तोरा।
दर्शन को तरसता है मन मोरा, आघात नहीं चाहे कर लूँ कितना भी तोरा।
फूटी है हृद्य मे प्यार की कोपंल, सींचते जइयो अपने नयनन् से प्यार की बूंद बरसाके ।
ललक उठता है दिल जब देख ले तोहे, कसके पकड़ना बहियाँ फिसल न जाऊँ जमाने में।
थोड़ा सा जो देर हो जावत है, सम्हारे नही सम्हरत चित्त चित्कार कर उठत है तोरे लिये।
हरत है हर कोई मोरे मन को, फिर भी फिरत हूँ तोरे आगे - पीछे कर्मो तो हाथ आ जावत।
कह ले कोई चाहे कुछ, पर इस तन मन के वास्ते होवत जात है तू सब कुछ।
नाद उठत है अंतर में, जो लबों से खुशी या विरह का गीत बनके गूंजत है।
बचल हव अब भी तमन्ना दिल में, जीत लेहूं या हार जाऊँ हाथों तेरे अपना सब कुछ।
पता है, पता है, तोहें पता है सब कुछ, पर मनवा न माने बिना कहे तोहसे सब कुछ।
देर कौने बात को लेके हव, इक बार तो कह दे खुलके, समझ जायेगा ये निपट।


- डॉ.संतोष सिंह