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Hymn No. 2349 | Date: 08-Jun-2001
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ओ मसीहा मुहब्बत के, बदनामी का तो जाम पिया हमने।
ओ मसीहा मुहब्बत के, बदनामी का तो जाम पिया हमने।
चस्पां जो था बेवफाई का दाग, तो कैसे करता मुहब्बत।
जहां भी पहुँचा, पहुँचने से पहले पहुँचा बद का ईनाम।
बेहआई भरी थी इतनी, बेगैरत होकर करते रहे नजरे चार।
औरों की तो बात छोड़ो, फेरा नजर अपनों ने अनजाने में।
माशा अल्लाह इतना होने पर भी करते गये हर नजर का बिसमिल्लाह।
अल्लाह ताला भी शरमाया, क्या खूब मैंने पुतला बनाया।
करने क्या क्या भेजा था, न जाने क्या क्या करता गया।
डर रहा था हर कोई अंजाम देखके, फिर भी न लिया कोई सबक।
होनी को कौन रोक सकता था, जो ओढ़ी थी हमने बेसुधी।


- डॉ.संतोष सिंह