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Hymn No. 2330 | Date: 27-May-2001
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बारंबार एक ही प्रयत्न में हूँ, सुलग उठे प्यार की आग जो है अंतर में।
बारंबार एक ही प्रयत्न में हूँ, सुलग उठे प्यार की आग जो है अंतर में।
प्रतिपल बढ़ती जाये, खाक होके तन मन बदल जाये प्यार में।
खाक में दबके सुलगती रहे, मौका पाके सुलगा जाये औरों को।
नेस्तोनाबूद होने का कोई डर न हो, प्यार का जोर जो इतना हो।
भड़कती जाये और हमारी तड़प बढ़ती जाये प्यार से प्यार के वास्ते।
अंजाम को पाने के लिये प्यार की आग समगति से जलती जाये।
जीवन में आये कैसे भी दौर, जलने पे पड़े न कोई असर।
कोई कोर कसर बाकी न रहे, मन और दिल से हवि अर्पित करता जाऊँ।
प्यार की आँच बढ़ते–बढ़ते लपक के छू ले तेरे दिल को।
बरस उठे प्यार की आग पे प्यार की आग बनके, रहे न प्यार के सिवाय कुछ।


- डॉ.संतोष सिंह