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Hymn No. 2243 | Date: 10-Apr-2001
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कमबख्त हूँ कितना बेशर्म, शर्म आ जाये बेशर्मों को।
कमबख्त हूँ कितना बेशर्म, शर्म आ जाये बेशर्मों को।
बानगी देखिये करता हूँ प्यार की बात कितनी बढ़ चढ़ के।
उसी पल देता हूँ सिला हद करते हुये बेहयायी की।
अपने तो अपने गैर भी सोचे, इंसा रूप में कौन सा जानवर आया।
जो दोष मिले न उढ़ने पे संसार में, तो भीतर मेरे खोज लेना।
दोष ना है इसमें किसीका, कर्मों के चलते किस्मत को है ऐसा बनाया।
दुखो के सिवाय दिया न किसी को कुछ, खुश करना कैसे जानूँ।
शुक्रिया अदा करता हूँ तेरी मेहरबानी का, सब जानते हुये साथ रखा।
कैसे कहूं कुछ करने को तुझे, कर रखी है जो कृपा बहुत।
फिर भी हो सके तो दूर कर देना, जिस कारण दूर रहा हूं तुझसे।


- डॉ.संतोष सिंह