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Hymn No. 1899 | Date: 28-Jul-2000
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मंदिर जा जाके मन को बना न पाया मंदिर जैसा तो कैसे होगा वास तेरा।
मंदिर जा जाके मन को बना न पाया मंदिर जैसा तो कैसे होगा वास तेरा।
शांत वातावरण में गूंजे घंटियों की गूंज, हर लेती है मन के हर संताप को।
यहाँ तो हर पल छायी रहती है बदहवासी, पल – पल बदलते है मन के आयाम।
सुरायता रहती है हर पत्थरों में, हर पत्थर – पत्थर होके जीवंत सा लगता है।
लाश के समान रहते है बिना किसी उल्लास के, तो कैसे कर पायेंगा प्रवेश पिता हममें।
उतरो शिखरों सी है चोटी जिसपे फहरे विजय पताका, जय का उद्घोष करते हुये।
यहाँ तो टूटा दिल है जो खाली – पीली के उलझनों में उलझा रहता है दिन – रात।
वहाँ का कण – कण है निर्जीव पर अंतर में है सजीव, वहा जाके हम खिल जाते है कमल के समान।
यहाँ पे ईश्वर के साक्षात् रहते करते है अपमान, इच्छाओं के पीछे भटक के बनते है दास।
काया पायी है ईश्वरमय हो जाने के वास्ते, मंदिर का हर कण पावन रहता है ईश्वरीय प्रभा से।


- डॉ.संतोष सिंह