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दिनांक: 14-Dec-2018
ये कैसी गलतफहमी है, जो टूटने को न है टूटती
अपनों को छोड़ो, पराये भी राह बदलते हैं देखते हमको |
खान में भी हुई थी मांग उस रबसे, उन सबके वास्ते
इतना ही तो चाहा था, खुशियाँ पूर्णता देना इन सबको मेरे दम से पहले |
बन्दे ने कभी न की जोर आजमाइश, हिस्से में थी आंसुओं से भरी बूँदे,
मिटे हुए को मिटाने पे थे आमद, मुसकुराते देखते थे सुनी आँखों से |


- डॉ.संतोष सिंह


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