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Hymn No. 2319 | Date: 17-May-2001
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चलते चल रहा हूँ न जाने कब से, ये अजीब खेल है कर्मों का जिंदगी में।
चलते चल रहा हूँ न जाने कब से, ये अजीब खेल है कर्मों का जिंदगी में।
जिंदगी पे जिंदगी खत्म होती जा रही है, न लेता है नाम खत्म होने का ये।
खेलो या न खेलो पर खेल में तुझे रहना पड़ता है खेल खतम होने के बाद भी।
हार-हो या जीत खेलना पड़ता है हर वख्त, खेल को खत्म करने के लिये भी खेलना पड़ता है।
बड़ा अजीब है नियम कि दर्शक निर्णायक है एक, ओर खिलाड़ी है सबके सब।
कर्मों की पोशाक जो रंगे है भांति - भांति के रंगो में, जिससे पकड में आते है सब।
कोई कितना भी बना ले ताना-बाना, मौत होने पे मिलता है कुछ पल का आराम।
जो खेलते खेलते परे चला जाता है खेल के, फिर कुछ नही कर पाता है कोई उसका।
कुछ भी कहो बिना खेले कोई भी पार पा सकता नहीं इससे, हो जाये चाहें कुछ भी।
चल रहा है खेल का ये दौर सदियों से, सदियों तक चलता रहेगा ये यूँ ही न समझके खेलने पे।


- डॉ.संतोष सिंह