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Hymn No. 2310 | Date: 09-May-2001
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बड़ा बनता फिरता था, प्रभु जी भक्त हूँ तेरा।
बड़ा बनता फिरता था, प्रभु जी भक्त हूँ तेरा।
ख्वाब में भी न सोचा था, जो मिलते है कभी कभार।
मिल लेता है तू उनके चाहने पे, देश ओर काल की बांधा पार करके।
हंसी तब आयी जब अपने आप पे कितना खोटा मन पाया कुकरर्मों से।
बातें बताया करता था भक्ति की, इतनी भी न शक्ति थी जो छू जाये तेरे दिल को।
अबोध सरल बालक भी अनजाने में पुकारे काकाजी तो हमारे घर आये थे।
कितना निष्ठुर हृद्य है मेरा, जो रखा दूर अब तक हमेशा तुझको।
अरे खिलते देखा उन फूलों को, जो कभी कभार तेरा नाम रस पीते थे।
वज्र भी लजाये ऐसा बेह्या तेरे पास जो आया, प्यार पे तेरे न जाने कितने दाग लगाये।
देने में न कभी कमी की तूने, पर हम तो ऐसे थे बिरले जो रहे तेरे पास रहके खोटे।


- डॉ.संतोष सिंह