VIEW HYMN

Hymn No. 2303 | Date: 02-May-2001
Text Size
अब नहीं प्रभु जी, अब नही प्रभुजी, बहुत खेल हो गया जीवन में।
अब नहीं प्रभु जी, अब नही प्रभुजी, बहुत खेल हो गया जीवन में।
खेल का दौर चलता रहा, कभी खेल खेला हमने तो कभी खेला किस्मत ने।
मर्म न जान पाया खेलने का, बस खेलता चला गया मन के कहने पे।
भाँप न पायी हवा का रूख, जब चपत पड़ी कर्मों की तो होश ठिकाने आया।
आशाओं – निराशाओं की आँख मिचौली चलती रही, जो सौंप रखी थी सत्ता किस्मत को।
अपना कहो या पराया कोई न काम आया, जब गुरू का दौर था तब वहां सिर्फ हम थे।
संजोग कहो या प्रभु तेरी कृपा, बंद रहने पे मिला तेरे दर का द्वार खुला।
शुरूआत हुयी नये खेल की, जहाँ करने के सिवाय कहने वालों के लिये कोई काम न था।
अनायास संवार रहती है मस्ती, जिसको देखों वो मशगूल रहता है अपनी करनी में ।
सौंप चुके है सब कुछ अपना, करने को कहाँ करते है सब कुछ तेरा।


- डॉ.संतोष सिंह