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Hymn No. 2302 | Date: 02-May-2001
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बेपरवाह जिंदगी रौंदी जाती है, कर्मों के नाम पे।
बेपरवाह जिंदगी रौंदी जाती है, कर्मों के नाम पे।
यहाँ कोई नही है किसीका, मौके की ताक में रहते है सब।
रब भी खेलता है खेल, जब जब मौका देते है हम।
भाग्य में सब कुछ बदा रहता है, पर पुरूषार्थ के हवाले।
चलाते है खेल, जन्म से मौत तक, जन्म दर जन्म गुजरने पे।
अंत तो होता है अनंत में, पर अनंत की अपनी सीमा को पहचानने में।
भाग्य के पाये छूये किरदार को भी गढ़ना पड़ता है पुरूषार्थ के सहारे।
जब तक हवाले न करोगे अपने आपको, प्रभु भी हवाला न लेने वाला है।


- डॉ.संतोष सिंह