VIEW HYMN

Hymn No. 2006 | Date: 01-Oct-2000
Text Size
प्रभु दोष तो है तन मन में अनेक, कैसे कहूँ तू दूर कर कोई एक।
प्रभु दोष तो है तन मन में अनेक, कैसे कहूँ तू दूर कर कोई एक।
न जाने ऐसा क्या किया था जो चुभ गयी तेरे मन से मेरी कोई कर्म।
बिन सोचे समझे करने का हूँ आदी, करने के बाद पछताता हूँ लाख।
बाते बनाने आया नहीं हूँ जानना चाहूँ किस बात ने पहुँचायी दिल को ठेस तेरे।
अच्छा सिला दिया है करीब रखके, अपने आप से किया रखा है दूर तूने।
हाँ नर नहीं पिशाच हूँ, जो रखना चाहे एक ही साथ दो नावों में पैर।
पता नहीं किस बात का दूँ तुझे वास्ता, जो ले आये मुझे सही रास्ते पे।
माफ तूने न जाने किंया कितनी बार, फिर भी सम्भलके चलना न आया।
कोई न अच्छा कर्म है ना विचार, जो तुझसे कह सकूँ प्रभु एक और बार।
सीख ना सका सीख से, तो कैसे बन पाऊँगा तेरे गीतों का उत्तराधिकारी।


- डॉ.संतोष सिंह