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Hymn No. 1998 | Date: 26-Sep-2000
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हें। अजीब सी कशिश जीवन की, न जाने कब खेल खेल नाउम्मीद से उम्मीद का।
हें। अजीब सी कशिश जीवन की, न जाने कब खेल खेल नाउम्मीद से उम्मीद का।
नींद में भी खेले खेल अंतरमन में, दूसरो की तो छोड़ ये तो खेलता है अपने आप से।
सांप का काटा हुआ बच सकता है, विचार जो बदला चिता में तो ढाल देता है जिंदा लाश में।
होने को न होने दे, हुये को न ठीक से करने दे, करवटो में बदल दे दिन रात को।
बनती हुयी बात न जाने कब बिगड़ जाये, दुनिया सारी विरोध में कब खड़ी हो जाये।
हाय तौबा का मचा रहता है कोहराम, काम करते हुये रह न जाता किसी का काम।
दिनो ब दिन दाम घटता जाता है, पूछ जो भी उसको भी खत्म कर जाता है मैं।
ये दलदल है जो जिंदा को घाँसे, मौत न देके मौत से भी बदतर हाल करपाये।
सद्गुरू का हाथ पड़ते ही इसके बंधन ढीले पड़ जाये, एक एक करके सारी राय बदल जाये।
उसकी कृपा थोड़ा सा प्रयास हौले हौले चरम करम कराके परम के पास लेते जाये।


- डॉ.संतोष सिंह